हरियाणा में समृद्धि और भाईचारे के सांग, मनोरंजन ही नहीं लोगों को नेक काम से जोड़ने की है कला

  18वीं सदी से पहले से चली आ रही सांग परंपरा से आज भी गौशालाओं, मंदिरों और सामाजिक कार्यों के लिए जुटाया जा रहा चंदा

- पं. लख्मीचंद, मांगेराम जैसे महान सांगी ने सांग गाकर खड़े करवाए थे बड़े-बड़े संस्थान

- इसी साल फरवरी में रोहतक के पहरावर में हुए सांग में गौशाला के लिए जुटाई गई 1.15 करोड़ रुपए की राशि

- सात से अधिक सांगियों के प्रमुख बेड़े आज भी लगातार निभा रहे सांग परंपरा

जितेंद्र बूरा.

18वीं सदी से पहले से चली आ रही सांग परंपरा आज भी हरियाणा की समृद्धि और भाईचारे की प्रतीक है। यह महज लोक किस्सों और रागनियों से मनोरंजन मात्र का ही नहीं बल्कि सामाजिक एकता को बनाते हुए भी सार्वजनिक भवन के निर्माण या कार्य के लिए सामूहिक राशि जुटाने का अहम माध्यम है। पिछले 20 साल में ही प्रदेश में सात से अधिक प्रमुख सांगियों के बेड़ों ने 8 हजार से अधिक सांग किए हैं। अनुमान है कि इनसे मंदिरों के निर्माण, गौशालाओं की समृद्धि, तालाबों की खुदाई, स्कूलों में कमरों के निर्माण इत्यादि के लिए 180 करोड़ से अधिक राशि जुटाई है।

गांवों और शहरों में आज भी मंदिरों के निर्माण, गाैशालाओं के विकास, सार्वजनिक तालाबों की खुदाई और अन्य सार्वजनिक कार्यों के लिए आपसी मेलजोल से राशि जुटाने के लिए सांग परंपरा का सहारा ले रहे हैं। पहले स्कूलों में कमरे भी दान से बनवाए जाते हैं, पिछले कई साल से अब सरकारें स्कूलों में बजट दे रही हैं। संबंधित कमेटियां दस से पंद्रह दिन का सांग बुलाती हैं। सांग कलाकार मनोरंजन करते हैं और लोगों को दान के लिए प्रोत्साहित करके नेक काम के लिए चंदा जुटाया जाता है। आज भी एक सांग के माध्यम से ही लाखों में चंदा राशि इकट्‌ठा हो जाती है।



सांगियों की सांग प्रणाली को आगे बढ़ा रहे नए सांगी, लगातार मिल रहे कार्यक्रम

सांग का प्रचनल दस साल पहले तक कम हुआ था, लेकिन अब फिर उत्साह पैदा हो रहा है। पं. लख्मी चंद के बेटे पं. तुलेराम ने करीब 54 वर्ष तक सांग गाए और 15 हजार से अधिक सांग किए। उनका देहांत 25 दिसंबर 2008 के बाद उनके बेटे विष्णु दत्त ने कमान संभाली है और लगातार सांग कार्यक्रम कर रहे हैं। गांव निंदाना से हुए प्रमुख धनपत सांगी की सांग प्रणाली को हिसार के धर्मबीर इन दिनों चलाए हुए हैं। हालांकि धनपत सांगी के पौते प्रदीप भी अलग से सांग करते हैं।

पं. मांगेराम की प्रणाली को वेदप्रकाश अत्री आगे बढ़ाते हुए सांग करते हैं। सोनीपत के मलिकपुर से सोमनाथ त्यागी भी सांग करते हैं। करनाल जिले रामशरण सांग करते हैं और रामकिशन व्यास की प्रणाली को आगे बढ़ा रहे हैं। उत्तर प्रदेश से सांगी चंद्र लाल की प्रणाली को राजस्थान के दानसिंह चला रहे हैं। 

पहरावर में सांग से फरवरी में जुटाए 1.15 करोड़ रुपए

पं. लख्मीचंद के पौते विष्णु दत्त ने बताया कि अब तक वे खुद 15 साल में 3 हजार के करीब सांग कर चुके हैं। इसी तरह अलग-अलग सांग कलाकारों के बड़े हजारों की संख्या में सांग कार्यक्रम करते हैं। पिछले दस सालों में सांग के प्रति रुझान कुछ कम हुआ लेकिन अब फिर बढ़ रहा है। सामाजिक तौर पर आपसी भाईचारे, एकजुटता के साथ सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और सार्वजनिक कार्यों के लिए दानराशि जुटाने का आज भी यह प्रमुख मंच है। उन्होंने बताया कि रोहतक जिले के पहरावर गांव में चार फरवरी से 14 फरवरी तक उन्होंने अपनी 16 सदस्यों की टीम के साथ सांग किया। यहां एक करोड़ 15 लाख रुपए तक दान राशि आई जोकि गांव की अखिल भारतीय गौशाला पहरावर में दान की गई। दिल्ली के महरौली में 15 फरवरी से 26 फरवरी तक सांग किया गया। इसमें करीब 97 लाख रुपए दान राशि आई। महरौली गौशाला में दान की गई। जनवरी में गुरुग्राम में बस अड्‌डे के सामने गौशाला में सांग किया गया। इसमें करीब 50 लाख दान राशि जुटाई गई।

दस दिन चलता है सांग, कुनबे-पान्ने मिलकर जुटा देते हैं राशि

सांग आज भी लोगों को इकट्‌ठा बैठक मनोरंजन करने का मौका देता है। गांव में गौशाला, मंदिर कमेटी या पंचायत सांग पार्टी बुलवाकर सांग करवती हैं। दस दिन तक सांग चलता है और हर दिन अलग-अलग किस्से व रागनी सुनाई जाती हैं। संबंधित काम के लिए दान के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। लोगों में उत्साह इतना होता है कि कुनबे, मोहल्ले, पाने या गांव के गांव इकट्‌ठे होकर राशि जुटाकर देते हैं। ग्रामीण बोलचाल में कुढ़ी अनुसार या तागड़ी अनुसार भी जिम्मेदारियां लगा दी जाती हैं। लोग उत्साह से दान करते हैं।

बड़े-बड़े संस्थान दान से खड़े हुए, लोग खुलकर देते हैं सहयोग

पं. विष्णु दत्त ने किस्सा बताया कि दो साल पहले करनाल जिले चौचड़ा गांव में गौशाला के लिए सांग कर रहे थे। पहले दिन कोई खास रुची लोगों की नहीं दिखी। बाद में गांव में आह्वान किया गया। ग्रामीण प्रभावित हुए तीन दिन में करीब 20 लाख इकट्‌ठा हुए। गौशाला के लिए चारा, गेहूं भी लोगों ने दिया साथ ही गौशाला में बैरक तक बनवाने की जिम्मेदारियां लोगों ने ली। जनवरी में बहादुरगढ़ क्षेत्र के कसार गांव में शिव मंदिर में सांग हुआ। यहां 20 लाख के करीब दान आया। कुरुक्षेत्र में ब्राह्मण धर्मशाला में हर साल सांग होता है। यह बड़ी संस्था बन चुकी है। सोनीपत के जाटी कलां गांव के राजकीय हाई स्कूल के लिए 30 साल पहले सांग के माध्यम से आई राशि से स्कूल में 15 से अधिक कमरे बनवाए थे। जींद के खांडा गांव में 15 साल पहले स्कूल के लिए सांग किया। करीब 14 कमरे दान से बनवाए गए। 

प्रदेश में हुए महान सांगी, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ी सांग परंपरा

हरियाणा के शेक्सपियर कहे जाने वाले 1901 में सोनीपत के जाटी कलां में जन्में पं. लख्मीचंद कभी स्कूल नहीं गए लेकिन सूर्य कवि की उपाधि प्राप्त प्रदेश की इस महान शख्सियत के सांग और रागनियां पिछले 100 साल से उत्तर भारतियों के मनाेरंज के साथ प्रेरणा बनी हैं। 100 साल बाद भी भविष्य के हालात पर लिखे बोल समय के साथ सच साबित भी हो रहे हैं। 1945 में इस दुनिया से विदा हुए पं. लख्मीचंद ने 44 की उम्र तक 19 से अधिक सांग और हजारों रचनाएं दी। राजाराम शास्त्री ने सन् 1958 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'हरियाणा लोक मंच की कहानियां' में लिखा है कि लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व जिस ज्योति को किशन लाल भाट ने प्रज्वलित किया, एक सौ सत्तर वर्ष बाद उसी में पं. दीपचंद ने स्वरूप परिवर्तन किया। आरंभ में स्वांग का स्वरूप मुजरे सरीखा था। नायक- नायिका आदि मंच पर खड़े होकर किस्से से जुड़ा अपना अभिनय करते और गाते थे।

बताया गया है कि किशनलाल भाट के बाद 1800 ई. में बंसलीलाल ने सांग को संजीवनी पिलाई। कैप्टन आरसी टेम्पल ने 1883 ई. में अपनी पुस्तक दि लिजेंड्स ऑफ दि पंजाब में इनके सांगाें का संपादन किया। पं. लख्मीचंद ग्रंथावली में डा. पूर्णचंद शर्मा लिखते हैं कि 1854 से 1899 ई. के बीच अलीबख्श के सांगों की धूम हरियाणा, मेरठ और मेवाड़ में खूब मची। हरियाणा के उत्तर पूर्वी भाग में अलीबख्श के समकालीन सांगी थे योगेश्वर बालक राम, कृष्णस्वामी, गोवर्धन, पं. शंकरलाल और अहमदबख्श। बालक राम ने पूर्ण भक्त, राजा गोपीचंद, शीलांदे आदि सांगों की रचना की। 19वीं शती के अंतिम चरण में स्वामी शंकरदास के शिष्य पं. नेतराम ने पहला सांग शीला सेठाणी गाया। सोनीपत के रामलाल खटिक उनके समकालीन थे। पं. दीपचंद लोक कवि छज्जूराम से गुरु मंत्र लेकर 19वीं शती के अंतिम दौर में सांग कला क्षेत्र में उतरे। इनके समकालीन सांगी पं. सरूपचंद दिसौर खेड़ी, मानसिंह जोगी सहदपुर, हरदेवा स्वामी गोरड़, बाजे नाई ससाणा, भरतू भैंसरू, निहाल नंगल, सूरजभान वर्मा भिवानी, हुक्मचंद किसमिनाना, धनसिंह जाट पूठी, अमरसिंह नाई और चतरू लोहार थे। पं मांगेराम ने हरदेवा और बाजे नाई के कला कौशल को अपनी रागणी तक में पिरौया।

पं. लख्मीचंद से पहले सांग कला क्षेत्र में बाजे भगत की तूती बोलती थी। बाद में पं. लख्मीचंद ऐसे छा गए कि बाजे के सांगों का यौवन ढलता चला गया और लख्मीचंद के सांग किशोर से यौवन में आ गए। बताया गया है कि पं. लख्मी चंद ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी किसी भी रागनी को दोबारा उसी रूप में नहीं गाया बल्कि हर बार नया रंग दिया। सोनीपत के बरोणा गांव के शहीद कवि मेहरसिंह की रचित रागनी अाैर किस्से 19वें दशक में खूब छाए और आज भी गाए जाते हैं। शहीद मेहर सिंह स्मारक समिति बरोणा के सहयोग से रणबीर सिंह ने कवि मेहरसिंह की रचनाओं का संकलन करते हुए पुस्तक भी प्रकाशित हुई। रोहतक जिले के समचाना गांव मेंं तीज त्यौहार के दिन 1939 में लोक कवि, लोक गायक एवं भजनोपदेशक पं. जगन्नाथ भारद्वाज का जन्म हुआ। सांग विदा को वे गांव से आकाशवाणी तक लेकर गए। सांगी सुलतान सिंह, पं. मांगेराम, रामकिशन व्यास, चंद्रबादी, धनपत, चंदन बजाणिया, हुकुमचंद, खीमा और हरदेवा की सांग कला से वे प्रभावित थे।

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