छह से सात घंटे ही मिलते हैं एलओसी पार खेती करने के, बीएसएफ जाती है साथ
- बाघा बॉर्डर किनारे बसे किसान भी अब कृषि कानून वापसी की मांग लेकर पहुंचे दिल्ली बॉर्डर पर
जितेंद्र बूरा.
एक दर्द यह झेल रह हैं कि जमीन पाकिस्तान बॉर्डर पर है। लाइन ऑफ कंट्रोल के उस पार भी अपनी जमीन पर खौफ में खेती करनी पड़ती है। छह से सात घंटे के लिए बाघा बॉर्डर द्वार खुलता है। बीएसएफ की मौजूदगी में फसल की कटाई, बुआई और सिंचाई होती है। अब केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग लेकर पाक बॉर्डर किनारे रहने वाले किसान देश की राजधानी के बाॅर्डर पर पहुंचे हैं। आठ दिन से कुंडली बॉर्डर पर किसान डटे हुए हैं। इंटर नेट व सिग्नल कम मिलने की दिक्कत वहां भी झेल रहे और यहां भी। घरवालों से पूरी तरह बात भी नहीं हो पा रही। पाक बॉर्डर से लगते पंजाब के गांवों से भी एक हजार से अधिक किसान आंदोलन में भागीदारी दे रहे हैं।
किसान संगठनों के आह्वान पर पंजाब के गांव-गांव में मुनादी करके किसानों को राशन-पानी के साथ आंदोलन में भागीदारी का आह्वान किया गया था। ऐसे में साढ़े 400 किलोमीटर दूर बाघा बोर्डर किनारे रहने वाले गांवों से भी किसान कुंडली बॉर्डर पर पहुंचे हैं। 20 से 22 घंटे इन्हें आने में लगे और अब बॉर्डर पर डटे हुए हैं।
बॉर्डर की खेती का दंश झेल रहे, अब सरकार से दुखी
बाघा बॉर्डर से दो किलोमीटर दूर अमृतसर के रणिका गांव से ट्रैक्टर लेकर दिल्ली आंदोलन में पहुंचे सरताज ने बताया कि वे पहले ही बॉर्डर पर खेती होने का दंश झेल रहे हैं। अपने खेत में जाने के लिए बॉर्डर का गेट खुलने का इंतजार रहता है। सुबह 9 बजे से चार बजे तक ही खेत में जाने की अनुमति है। इसके बाद उन्हें वापस लौटना होता है। वहां तो बस नहीं चलता अब सरकार तो परेशान न करे। कानून वापसी की मांग लेकर आए हैं।
सप्ताह में तीन दिन खुलता है गेट तभी संभालते हैं खेती
अमृतसर के रणगढ़ गांव के किसान सुरजीत सिंह ने बताया कि उसके पास चार एकड़ जमीन है। इसमें तीन एकड़ तो बॉर्डर की लाइन के पार हैं। सप्ताह में तीन ही दिन ही उनके लिए गेट खुलता है। तभी जाकर अपने खेत संभालते हैं। बिजली भी इसी टाइम में आती है। तनाव का माहौल होता है तो फसल कटाई भी लेट हो जाती है। किसान हैं खेती ही करेंगे।
बॉर्डर पर खेती की राहत का मुआवजा भी हुआ बंद
बाघा बॉर्डर के पास खेती करने वाले बलविंद्र सिंह अपने भाई के साथ किसान आंदोलन में पहुंचे हैं। उन्होंने बताया कि बॉर्डर पर खेती होने की चुनौतियों के बीच हाईकोर्ट से मुआवजा देने को आदेश हुए थे। एक साल उन्हें दस हजार प्रति एकड़ मुआवजा मिला भी पर पिछले तीन-चार से नहीं मिल रहा। खेती लगातार घाटे का सौदा बन रही है, वहीं सरकार उल्टे खेती को पूंजीवादी ताकतों के हवाले करने पर तुली है।
उम्र बीत गई पर किसानों का ऐसा संघर्ष नहीं देखा
मणि चिमरंगा गांव के 70 वर्षीय सरदार सरम सिंह ने बताया कि आजादी के बाद भारत-पाक बॉर्डर बन गया। वे बचपन से इस उम्र तक यहीं खेती करते आए हैं। वहां का अब इतना डर नहीं है। लेकिन अब जो किसान आंदोलन का संघर्ष चल रहा है ऐसा इतना लंबा आंदोलन उन्होंने पहले नहीं देखा। 50 दिनों से पहले पंजाब और अब दिल्ली बॉर्डर पर किसान डटे हैं।

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें