हरियाणा के ऐसे गांव जहां हर साल होता है लॉकडाउन, महामारियों से जीतने की है परंपरा

- विदेशों से पहले भी आई हैं महामारियां, हरियाणा के गांवों में सालों से चली आ रही लॉकडाउन की परंपरा
- कोरोना वायरस से बचाव में लॉकडाउन से लोगों  को घबराने की बजाय सरकार ने मांगा सहयोग
- 1918 में आई कार्तिक की बीमारी में ही हरियाणा में हुई थी 2.20 लाख मौतें

जितेंद्र बूरा.

कोरोना वायरस का संक्रमण चीन के वुहान से शुरू होकर दुनियाभर में फैला और भारत में भी विदेशों से आए लोगों के माध्यम से पहुंचा। संक्रमण से बचाव के लिए प्रभावित देशों में लॉकउाउन यानि जरूरी चीजों को छोड़कर सबकुछ बंद किए जाने लगे। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 मार्च 2020 को जनता कर्फ्यू लगाने की अपील की कि लोग खुद घरों से बाहर न निकलें। हरियाणा में कई गांव ऐसे हैं जहां सालाना एक दिन लॉकडाउन की परंपरा है। देश में पहले भी विदेशों से महामारियां आती रही हैं। वर्ष 1918 में पहले विश्वयुद्ध के वक्त फैले स्पैनिश फ्लू से हरियाणा में ही 2.20 लाख मौत हुई थी। इसे कार्तिक की बीमारी भी कहा गया। तब से गांवों को हिंदू कैलेंडर के भादो माह से कार्तिक के माह के बीच किसी एक या दो दिन बंद यानि लॉकडाउन करने की परंपराएं चली। कई गांव आज भी महामारी से बचने के लिए गांव को लोकडाउन करते हैं।

हरियाणा के गांवों में बुजुर्ग आज भी बताते हैं कि कार्तिक की बीमारी ऐसी थी कि एक व्यक्ति का दाह संस्कार करके आते थे तो दूसरे की मौत हुई मिलती थी। कई जगह तो एक ही चिता में दो-तीन लोगों के संस्कार भी हुए। अंग्रेजों के जमाने के समय वर्ष 1918 में पहले विश्वयुद्ध के वक्त स्पैनिश फ्लू फैला था। इस संक्रमण ने भारत में 2 करोड़ के करीब लोगों की जान ले ली थी। इनमें से पंजाब (आज के पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पाकिस्तान पंजाब को मिलाकर) में 8 लाख मौत हुई थी। यह एक ऐसा बुखार था, जिसमें मरीज के शरीर का तापमान 104 डिग्री और पल्स 80 से 90 के बीच पहुंच जाती थी। सिर, पीठ और शरीर के दूसरे अंगों में बहुत दर्द होता था। श्वासनली में सूजन आ जाती थी। नाक और फेफड़ों से खून बहना शुरू हो जाता था और फिर गिने-चुने तीन दिन के भीतर ही मरीज दम तोड़ देता था। सबसे पहले मई 1918 में प्रथम विश्वयुद्ध से लौटे बॉम्बे के कुछ सैनिकों को एक खास किस्म का फ्लू देखा गया। इसके बाद उत्तरी भारत के दिल्ली और मेरठ जिलों में फैल गया। हरियाणा में अक्टूबर व नवंबर में हिंदू कैलेंडर के कार्तिक माह में इसका भयंकर रूप दिखा।

आज भी गांव में लगा देते हैं बंद, सीमा से कोई नहीं बाहर जाता
महामारियों से बचने के लिए हरियाणा के गांवों में बंद यानि लॉकडाउन करने की पंरपराएं कार्तिक बीमारी के बाद शुरू हुई। प्रयास रहता था कि गांव में कोई बाहर से संक्रमित न आए और गांव में लोग सुरक्षित रहे। जींद जिले के हरीगढ़ गांव में हर साल सावन माह में शुक्रवार की शाम से शनिवार शाम तक बंद होता है। गांव की सीमा से हर किसी के बाहर जाने पर पाबंदी लगती है। हरिगढ़ (खेड़ी) गांव के हरिकेश और नरेंद्र बताते हैं कि इस दिन लोहे को हाथ नहीं लगाने की हिदायत रहती है। गांव में एक दिन पहले मुनादी करवाकर सूचना दी जाती है। कोई व्यक्ति बाहर गया है तो पहले ही दिन वापस बुला लिया जाता है या बंद के अगले दिन आता है। गांव के मंदिर में सामूहिक पूजा और भंडारा होता है।
गांव के हर जीव को गंगाजल के छींटे से करते थे शुद्ध
 हाट गांव के बुजुर्ग बलवान सिंह बताते हैं कि कुछ साल पहले ही गांंव में यह परंपरा बंद हुई है। पहले गांव की सीमा पर खेतों में उगी ढाब की बेड़ी बनाकर खंभों पर बांधी जाती थी। बंद का समय तय किया जाता था। एक दिन पहले ही पशुओं का चारा खेत से ले आते थे। लोहे से परहेज इसलिए था कि काम करते वक्त चोट न लगे, जिससे संक्रमण का खतरा रहता था। भादो यानि अगस्त-सितंबर में यह हर साल होता था। सुबह हवन कर शुद्धिकरण और सुख-शांति की कामना करते। जींद के नजदीक खरकरामजी सहित कई जिलों के गांवों में यह परंपरा चली। बंद समय समाप्त होने के बाद गांव के मुख्य चौराहों पर पानी के ड्रम भरते थे। उसमें गंगाजल और गाय का दूध मिलाया जाता था। इसे बर्तनें में भरकर हर घर के पशु और लोगों के साथ घरों के अंदर छींटे देकर शुद्धिकरण किया जाता था। मकसद सिर्फ बीमारियों से संक्रमण पर जागरूकता था। आज भी गांव में इन दिनों में सामूहिक धूप खेने यानि घर-घर धूप से शुद्धि की जाती है। गांव के युवा इसमें 15 दिन तक भागीदारी देते हैं।
सोनीपत के दीपालपुर में एक माह में हुई थी 15 मौत

सोनीपत के दीपालपुर निवासी एवं आंतिल बारह खाप के प्रधान जयभगवान आंतिल ने बताया कि उनके गांव में 2007 में अकाल मौत होने का सिलसिला शुरू हो गया था। तेहरवीं से पहले ही मौत होना शुरू हो गई। 25 दिन में करीब 15 लोगों की मौत हुई। पूरा गांव परेशान हो गया था। पंचायत ने फैसला लेकर एक दिन के लिए पूरे गांव की सीमाएं बंद की। लोगों ने सीमाओं पर पहरा दिया। किसी भी बाहरी व्यक्ति को गांव में प्रवेश नहीं करने दिया। इसके बाद हवन यज्ञ हुआ और हर घर में हवन के धुएं से सेनिटाइजर किया गया। इसके गांव में अकाल मौत मरने का सिलसिला बंद हुआ। हालांकि ये प्राकृतिक और अलग-अलग बीमारियों से मौत हुई थी।
वहीं रोहतक जिले के खरक जाटान में सालों से भादो माह में बंद लगता है। 1995 में आई बाढ़ के बाद से दत्तौड़ में हर साल एक दिन बंद रहता है।

वर्ष 1918 की कार्तिक महामारी में यह थे हरियाणा के हालात

जिले का नामकुल जनसंख्याकितने लोग मारे गए


गुड़गांव75938963071
रोहतक71483461049
करनाल79978752000
हिसार80488944327


सोर्स: एजुकेशन (सेनिटरी), मार्च 1919/17-39,एनएआई, जीओआई, पेज-167

अलग-अलग समय में ये आई महामारी
प्लेग :
वर्ष 1994 में गुजरात के सूरज शहर में स्वास्थ्य मंत्रालय ने खबर दी कि एक मरीज की मौत हुई है। उसे प्लेग था। शाम तक 10 मौतों की खबर आई। धीरे-धीरे इसने महामारी का रूप लिया और देश के विभिन्न राज्यों सहित हरियाणा में भी बीमारी फैली। बताते हैं कि इस समय लंदन में एयर इंडिया के प्लेन को ‘प्लेग प्लेन’ कहा गया। ब्रिटिश अखबारों में इसे ‘मध्यकलीन श्राप’ कहा गया। प्लेग चूहों के शरीर पर पलने वाले कीटाणुओं की वजह से फैलाता है। इसे पहले वर्ष 1815 के आस पास, 1876 में, 1898 में प्लेग फैला और लगातार 20 साल तक देशभर में लोगों की जान लेता रहा।
कॉलरा ( हैजा ) :
1940 के दशक में भारत ने हैजा से संघर्ष किया। पीने का गंदा पानी इसकी मुख्य वजह थी। वर्ष 1941 के आस पास यह बीमारी भारत के गांवों में फैल गई। काफी मौत हुई। फिर 1975  के दशक में बंगाल की खाड़ी के इलाके में यह फिर से फैला था। 1990 के दशक में टीके की खोज के बाद इस पर काबू पाया गया। हालांकि अब भी यह खत्म नहीं माना जा सकता है। कहीं-कहीं अब भी मामले सामने आते हैं।
चेचक :
चेचक का कोई इलाज नहीं है। यह संक्रमण की बीमारी है जो पांच से सात दिनों तक रहती है. इसे रोकने के लिए टीका लगाया जाता है। भारत में 1960 के दशक के आसपास इसका प्रभाव बढ़ा। 1970 में इसे रोकने का अभियान शुरू किया गया। लोगों में जागरुकता की कमी और हाईजीन की समस्या ने इसे तेज़ी से फैलने दिया। ग्रामीण क्षेत्र में कुछ-कुछ जगह अब भी यह होती है।
– स्मालपॉक्स (बड़ी माता)
यह बीमारी ग्रामीण इलाकों में गहरे पैठी। अंधविश्वासों में लिप्त। 15वीं शताब्दी में इसे ‘व्हाइट पॉक्स’ कहा गया. इस बीमारी में शरीर पर छोटे दाने हो जाते हैं। शुरू में इसकी मृत्यु दर 35 प्रतिशत थी। भारत में इसका प्रभाव 19वीं सदी की शुरुआत में देखा गया।
-चिकनपॉक्स (छोटी माता)
चिकन पॉक्स के संक्रमण से पूरे शरीर में फुंसियों जैसी चकत्तियां हो जाती हैं।

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