जोहड़ पर दशहरे की शाम को छोरियों का सांझी तैराण का और छोरयां का लठ घुमाण का टेम ना रहा
जितेंद्र बूरा..
पेंट से चमकती दीवार भी इस बार अपनी ओर ध्यान नहीं खींच रही है। नवरात्रों के नौ दिन बीते पर घर में अनोखे मेहमान की हाजिरी नहीं हुई। न हर दिन उसे खिलाने के लिए व्यंजन बने। अब दशहरे की शाम आ गई। रावण के पुतले जलाकर उत्साहित गांव के लोग घरों में मिठाई बांट रहे हैं। फिर भी न जानेे क्यों बहुत कुछ फीका है। अंधेरा छा गया है किसी की विदाई का महोत्सव नहीं है। तालाब पर सन्नाटा है और युवतियों आैर महिलाओं के गीतों की गूंज सुनाई नहीं दे रही। गांव के युवा छोरे घर पर ही मोबाइल फोन पर दशहरे की वीडियो शेयर कर रहे हैं। घर के दरवाजे के पीछे रखी दादा, पापा की लाठी आज भी एक जगह खड़ी सिसकियां ले रही है। उसे तो तालाब पर अपना करतब दिखाना था।
मैने भी होंसला कर ही लिया चलो मैं ही शुरुआत करता हूं। कोणे में रखी वो लाठी उठाई और चल दिया जोहड़ की ओर। तालाब का पानी अब गांव की गंदगी से मैला हो गया है। गांव वालोंं का घुसना तो दूर अब तो पशुओं को भी कम ही इसमें ले जाते हैं। चांद-तारों की चमक पानी पर जरूर है लेकिन दूर-दूर तक वो पानी में तैरती अनोखी आग नजर नहीं आ रही। किनारे बैठ यूं ही वे बचपन की यादें में मन में घूमने लगी।
कनागतोंं के दौरान ही तैयारी शुरू हो जाती थी। मां, बहनें, चाची, ताई मिलकर सूखे किसी तालाब या खेत से चिकनी मिटटी लेकर आती थी। फिर मैं ही नहीं पूर मोहल्ले के बच्चे अपने-अपने घर पर मिट्टी से चांद-सितारेे, कड़ी, छलकड़े, कंठी, झालरे, कंगी सहित महिला श्रृंगार के सामान मिट्टी से बनाकर सुखाते थे। माता के स्वरूप के तौर पर महिला रूपी मखौटा, पैर व हाथ भी मिट्टी से बनाते। सूखने के बाद दुकान से तरह तरह के रंग खरीदकर इन्हें सजाते।
नवरात्र का पहल दिन आते ही मां के स्वरूप और हरियाणवी संस्कृति परंपरा की मिसाल सांझी को दीवार पर आकार देते थे। गोबर या मिट्टी के लेप पर चिपकाते थे। बस इस दिन से अनोखा मेहमान घर में आ जाता था। बाहरी व्यक्ति उसका मुंह न देखे इसके लिए खास तौर पर चुन्नी से मुंह ढांपा जाता था। सुबह और शाम घर में जो भी पकवान बनता उसका पहला निवाला मेहमान के नाम का होता। सुख-समृदि्ध लेकर आई सांझी की शाम को आराधना करते थे।
अकसर मजाक और हंसी मखोल से घर में कहा जाता था कि यह नई नवेेली बहू है। हम मान भी लेते थे। क्योंकि दशहरे के एक या दो दिन पहले ही उसके पास एक छोटा स्वरूप और बना दिया जाता था। बताते थे कि यह सांंझी का भाई आया है। इसे ससुराल से वापस मायके ले जाने। असल में यह माता की नौ दिन की पूजा के बाद वापस देवलोक जाने का बुलावा था। दशहरे के दिन हलवा-पूरी और अन्य पकवान आकृति की सेवा में बनते। बस हर किसी को शाम होने का इंतजार रहता। गांव की छोरी-महिलाएं मिट्टी के बर्तन कुम्हार के घर से लाती थी। शाम को आकृति को दीवार से उतार लेते। मुखौटे को मिट्टी के बर्तन में रख लिया जाता। हवन सामग्री डाली जाती और उसे तालाब में प्रवाहित करने की तैयारी होती।
तालाब पर बैठकर जिस लाठी को लेकर में यह सब सोच रहा था इस लाठी ने ही अपने अब तक के जीवन काल में दस से पंद्रह सांझी वाली तालाब में तैरती मटकी को तोड़कर अपनी बहादुरी दिखाई है। तैयार तो यह आज भी है पर वो तैरती मटकी नहीं है। दशहरे के दिन तालाब किनारे अंधेरा होते ही झमगट लग जाता था। तालाब के एक किनारे पर छिपकर लाठिया लेकर गांव के युवा बैठते थे। दूसरे किनारे सांझी को विदाई देनेे के लिए मटकी को सजाया जाता। सांझी के गीत महिलाएं गाती थी।
मटकी में हवन सामग्री मे अग्नि जलाई जाती। फिर तालाब के किनारे कुछ अंदर जाकर उसे प्रवाहित किया जाता। हर महिला व युवती की यही कोशिश होती कि सांझी की मटकी टूटे न और रात भी तालाब में जगमगाए। तभी तो हमारी ताई उसे बचाने के लिए कांटेदार झाडी लेेकर मटकी तोड़ने पहुंचे युवाओं के पीछे दौड़ पड़ती थी। तालाब के काफी अंदर तक मटकी लेकर जाती थी। देर शाम तक यही उत्साह भरा अदभुत नजारा रहता। युवा भी हर सांझी को पानी में तोड़कर ही घर आते थे।
वह दशहरे की शाम अब नही है। सन्नाटे भरे तालाब में पक्षी तो हैं लेकिन उन्हें भी अब वो रंगीन रात नहींं दिखाई देती। 'सांझी ' उत्तर भारत के गांव -देहात विशेषकर हरियाणा, पंजाब , राजस्थान में मनाया जाने वाला सर्दी के नवरात्रौ का त्यौहार। अब दशहरे का उत्सव तो है पर वो सांझी वाली शाम नही है। सरकारी तौर पर लोकसंपर्क विभाग संस्कृति बचाने के लिए महज कार्यालय में सांझी प्रतियोगिता जरूर करवाता है लेकिन गांव की पंचायतें या पंचायत विभाग हर गांव तक ले जाए तो सांझी फिर नए रूप लेकर हर गांव में घरों की दीवारों पर सजेगी।
बस इब घणी रात हाेगी है। मोबाइल पर चैट करके गाम के छोरे भी सो लिए। सुबह मन्नै भी आपणी ड्यूटी पर जाणा है। उम्मीद स अगले साल हाथ में इस लाठी को मौका मिलेगा तालाब में सांझी तोड़न का। उसी दरवाजे के पीछे कोणे में इस लाठी को ले जाकर रख रहा हूं।
सब भाईयां ने दशहरा की शुभकामनाएं।

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