हरियाणा में गाए गए 24 प्रसिद्ध सांग, हर रागणी में मिलता है जीवन का मर्म


जितेंद्र बूरा...

ले कै दे दे, कर कै खा ले, उस तै कौण जबर हो स।
नूगरा माणस, नजर फेर ज्या, समझणिए की मर हो स।

मतलब- किसी से लिया वापस दे देना, अपनी मेहनत करके खाना, उस व्यक्ति से अच्छा और कोई नहीं है।
             चालाक आदमी समय आने पर दोस्ती व रिश्तेदारी भूल नजरें बदल जाता हैं, समाज में बस अच्छे बुरे की समझने वाले को ही परेशानी झेलनी पड़ती है।

हरियाणा के शेक्सपियर कहे जाने वाले 1901 में सोनीपत के जाटी कलां में जन्में पं. लख्मीचंद कभी स्कूल नहीं गए लेकिन सूर्य कवि की उपाधि प्राप्त प्रदेश की इस महान शख्सियत के सांग और रागनियां पिछले 100 साल से उत्तर भारतियों के मनाेरंज के साथ प्रेरणा बनी हैं। 100 साल बाद भी भविष्य के हालात पर लिखे बोल समय के साथ सच साबित भी हो रहे हैं। 1945 में इस दुनिया से विदा हुए पं. लख्मीचंद ने 44 की उम्र तक 19 से अधिक सांग और हजारों रचनाएं दी।

राजाराम शास्त्री ने सन् 1958 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'हरियाणा लोक मंच की कहानियां' में लिखा है कि लगभग सवा दो सौ वर्ष पूर्व जिस ज्योति को किशन लाल भाट ने प्रज्वलित किया, एक सौ सत्तर वर्ष बाद उसी में पं. दीपचंद ने स्वरूप परिवर्तन किया। आरंभ में स्वांग का स्वरूप मुजरे सरीखा था। नायक- नायिका आदि मंच पर खड़े होकर किस्से से जुड़ा अपना अभिनय करते और गाते थे।

बताया गया है कि किशनलाल भाट के बाद 1800 ई. में बंसलीलाल ने सांग को संजीवनी पिलाई। कैप्टन आरसी टेम्पल ने 1883 ई. में अपनी पुस्तक दि लिजेंड्स ऑफ दि पंजाब में इनके सांगाें का संपादन किया। पं. लख्मीचंद ग्रंथावली में डा. पूर्णचंद शर्मा लिखते हैं कि 1854 से 1899 ई. के बीच अलीबख्श के सांगों की धूम हरियाणा, मेरठ और मेवाड़ में खूब मची। हरियाणा के उत्तर पूर्वी भाग में अलीबख्श के समकालीन सांगी थे योगेश्वर बालक राम, कृष्णस्वामी, गोवर्धन, पं. शंकरलाल और अहमदबख्श। बालक राम ने पूर्ण भक्त, राजा गोपीचंद, शीलांदे आदि सांगों की रचना की। 19वीं शती के अंतिम चरण में स्वामी शंकरदास के शिष्य पं. नेतराम ने पहला सांग शीला सेठाणी गाया। सोनीपत के रामलाल खटिक उनके समकालीन थे। पं. दीपचंद लोककवि छज्जूराम से गुरु मंत्र लेकर 19वीं शती के अंतिम दौर में सांग कला क्षेत्र में उतरे। उनके प्रसिद्ध सांग सोरठ, सरणदे राजा भोज, नल दमयंती, गोपीचंद महाराज, हरिश्चंद्र, उत्तानपाद तथा ज्यानी चोर, थे। इनके समकालीन सांगी पं. सरूपचंद दिसौर खेड़ी, मानसिंह जोगी सहदपुर, हरदेवा स्वामी गोरड़, बाजे नाई ससाणा, भरतू भैंसरू, निहाल नंगल, सूरजभान वर्मा भिवानी, हुक्मचंद किसमिनाना, धनसिंह जाट पूठी, अमरसिंह नाई और चतरू लोहार, थे। पं मांगेराम ने हरदेवा और बाजे नाई के कला कौशल को अपनी रागणी तक में पिरौया।

पं. लख्मी ने दिया सांग को नया यौवन
पं. लख्मीचंद से पहले सांग कला क्षेत्र में बाजे भगत की तूती बोलती थी। बाद में पं. लख्मीचंद ऐसे छा गए कि बाजे के सांगों का यौवन ढलता चला गया और लख्मीचंद के सांग किशोर से यौवन में आ गए। बताया गया है कि पं. लख्मी चंद ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी किसी भी रागनी को दोबारा उसी रूप में नहीं गाया बल्कि हर बार नया रंग दिया। उनकी इसी कला ने युवाओं से लेकर बुजुर्गां तक के दिलों में उनकी छाप छोड़ी।

स्वतंत्रता सेनानी फौजी मेहर सिंह ने जगाई देशभक्ति
वर्ष 1993 में नवभारत टाइम्स में एक लेख छपा जिसकी हेडलाइन थी-'रागनी वाला सिपाही फौजी मेहर सिंह'। सोनीपत के बरोणा गांव के शहीद कवि मेहरसिंह की रागनी आए दिन गांवों में सुनने वालों के साथ शहरी लोगों के लिए भी इस महान कवि के जीवन परिचय को यादगार बना दिया। शहीद मेहर सिंह स्मारक समिति बरोणा के सहयोग से रणबीर सिंह ने कवि मेहरसिंह की रचनाओं का संकलन करते हुए पुस्तक प्रकाशित हुई। वे फौज की जाट रेजिमेंट में भर्ती हुए और उनके एनरोलमेंट का साल 1936 था। इस आधार पर उनका जन्म वर्ष 1918 के आसपास माना गया है।
रंगूून में वह शहीद हो गए। उनकी धर्मपत्नी
 96 साल की उम्र में 2004 में  इस दुनिया से विदा हुई। छोटी सी उम्र में घरवालों की इच्छा के विरुद्ध गाना-बजाना सीखा। रागनियों से देशभक्ति को जन-जन में जगाया। किसान के दर्द, सामाजिक कुरीतियों पर जागृति लाई।

तीन जमात तक पढ़े जाट मेहर सिंह पहले सैकड़ों रचनाएं लिख चुके थे, लेकिन फौज में भर्ती होने के बाद पहली रागणी लिखी-
देश नगर घर गाम छूटग्या कितका गाणा गाया,
कह जाट तै डूम हो लिया बाप मेरा बहकाया।

मेहरसिंह के किस्सों में सरवीर नीर, अंजना पवन, चापसिंह, सुभाषचंद्र बोस, सत्यवान सावित्री, पदमावत, राजा हरिश्चंद्र, रूप बसंत शामिल हैं। इसके अलावा हजारों विभिन्न सांगों की रागनियां व फुटकर रागनियां उन्होंने बनाई और गाई।

पं. जगन्नाथ ने सांग से रेडियो तक को दिलाई ख्याति
रोहतक जिले के समचाणा गांव मेंं तीज त्योहार के दिन 1939 में लोकवि, लोक गायक एवं भजनोपदेशक पं. जगन्नाथ भारद्वाज का जन्म हुआ। सांग विदा को वे गांव से आकाशवाणी तक लेकर गए। महर्षि दयानंद युनिवर्सिटी रोहतक की प्रोफेसर डा. माया मलिक और जगबीर राठी ने पं. जगन्नाथ रचनावली का संपादन वर्ष 2006 में किया। सातवीं कक्षा में ही लेखन में सक्रिय हुए पंडित जी 1959 में दसवीं पास करने के साथ ही लोककवि के तौर पर विख्यात हुए। इसी साल आकाशवाणी दिल्ली पर उन्होंने पहला संगीत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। 33 साल तक दिल्ली विकास प्राधिकरण में क्लर्क की नौकरी उन्होंने की। भक्ति भजन और सामाजिकता पर उनकी रचनाएं विख्यात हुई। सांगी सुलतान सिंह, पं. मांगेराम, रामकिशन व्यास, चंद्रबादी, धनपत, चंदन बजाणिया, हुकुमचंद, खीमा और हरदेवा की सांग कला से वे प्रभावित थे।

उनकी प्रभावित करने वाली अनेक रचनाएं रही जिसमें गरीब पर गाई रागणी थी-

सबतै बुरी कंगाली हो, कोये बिरलाए दिल नै डाटै।
किसनै बेरा गरीब आदमी, किस तरियां दिन काटै।।

हरियाणवी संस्कृति के महान कवियों ने ये गाए और लिखे किस्से व सांग

1. नौटंकी
2. ज्यानी चोर
3. शाही लकड़हारा
4. हूर मेनका
5. रघुवीर सिंह: धर्मकौर
6. राजा भोज : सरणदे
7. चंद्रकिरण
8. हीर-रांझा
9. चापसिंह
10. चीर-पर्व
11. विराट-पर्व
12. नल दमयंती
13. पूरणमल
14. सत्यवान-सावित्री
15. राजा हरिशचंद्र
16. सेठ ताराचंद
17. पदमावत
18. भूप पुरंजन
19. मीराबाई
20. सरवर नीर
21. अंजना पवन
22. नेताजी सुभाष चंद्र बोस
23. रूप बसंत
24. गोपीचंद

गीत-संगीता का स्वरूप समय के साथ बदलता रहेगा, बस जो लिख-गा गया समाज के लिए, वही दिलों में जीता रहेगा...।

टिप्पणियाँ

  1. अति सुन्दर 👌👌👌👌👌🙏🏻🙏🏻🙏🏻🌹😊🌹🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

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