जींद रियासत के बटेऊ (दामाद) ने 1915 में ही देश के बाहर बना दी थी 'आजाद हिंद' सरकार! नोबेल के लिए हुए थे नॉमिनेट, अब इनके नाम से बनेगी यूनिवर्सिटी


इतिहास के पन्नों में औझल देश की आजादी के भागीदार महान शख्सियत की गाथा..
 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके नाम से यूनिवर्सिटी बनाने के लिए किया है शिलान्यास
जितेंद्र बूरा..
हरियाणा के जींद जिले की जनता को भले ही आजादी के बाद वर्ष 1948 में जींद रियासत से आजादी मिली। लेकिन इसी रियासत के बटेऊ यानि दामाद ने 1915 में ही देश के बाहर आजाद हिंद सरकार! का गठन कर दिया था। यह थे वर्ष 1901 में जींद नरेश महाराज रणवीर सिंह की छोटी बहन बलवीर कौर से धूमधाम से शादी करने वाले उत्तर प्रदेश के हाथरस के हिंदू राजा महेंद्र प्रताप सिंह।
25 दिसंबर 2015 का दिन था। दुनिया क्रिसमस मना रही थी, भारत में वाजपेयी जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तो पाकिस्तान में जिन्ना के साथ-साथ नवाज शरीफ की सालगिरह। पीएम मोदी रूस से सीधे अफगानिस्तान के काबूल में पहुंचे। यहीं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजा महेंद्र प्रताप सिंह की तरीफ अपने भाषण में कर उनकी देश के प्रति भागीदारी को दोबारा दिलों में जगा दिया। इसके बाद प्रधानमंत्री ने 14 सितंबर 2021 को अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी का शिलान्यास किया।
                                       ................................

हाथरस के राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया। मुरसान के राजा ने भी युद्ध में जमकर साथ दिया। अंग्रेजों ने दयाराम को बंदी बना लिया। 1841 में दयाराम का देहान्त हो गया। उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे। 1857 में गोविन्दसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्दसिंह का राज्य लौटाया नहीं - कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य पर पूरा अधिकार छीन लिया। राजा गोविन्दसिंह की 1861 में मृत्यु हुई। संतान न होने पर वे अपनी पत्नी को पुत्र गोद लेने का अधिकार दे गये। अत: रानी साहबकुंवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया। अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी। राजा हरनारायण सिंह अंग्रेजों के भक्त थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। अत: उन्होंने मुरसान के राजा घनश्याम सिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया। वे महज तीन साल के थे। इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बने। हाथरस राज्य का वृन्दावन में विशाल महल है उसमें ही महेन्द्र प्रताप का षैशव काल बीता।  महेन्द्र प्रताप का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को हुआ।



राजा साहब पहले कुछ दिन तक अलीगढ़ के गवर्नमेन्ट स्कूल में और फिर अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कॉलेज में पढ़े। यही कॉलेज बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। राजा साहब को अलीगढ़ में पढ़ने सर सैयद अहमद ख़ाँ के आग्रह पर भेजा गया था, क्योंकि राजा साहब के पिताजी राजा घनश्याम सिंह की सैयद साहब से व्यक्तिगत मित्रता थी। इस संस्था की स्थापना के लिए राजा बहादुर ने यथेष्ट दान भी दिया था। उससे एक पक्का कमरा बनवाया गया, जिस पर आज भी राजा बहादुर घनश्याम सिंह का नाम लिखा हुआ है।

स्वतंत्रता सेनानी की जागी भावना

राजा साहब जब विद्यार्थी थे, उनमें जहां सब धर्मों के प्रति सहज अनुराग जगा वहीं शिक्षा द्वारा जैसे-जैसे बुद्धि के कपाट खुले वैसे-वैसे ही अंग्रेज़ों की साम्राज्य लिप्सा के प्रति उनके मन में क्षोभ और विद्रोह भी भड़का। वृन्दावन के राज महल में प्रचलित ठाकुर दयाराम की वीरता के किस्से बड़े बूढ़ों से सुनकर जहाँ उनकी छाती फूलती थी, वहाँ जिस अन्याय और नीचता से गोरों ने उनका राज्य हड़प लिया था, उसे सुनकर उनका हृदय क्रोध और क्षोभ से भर जाता था और वह उनसे टक्कर लेने के मंसूबे बाँधा करते थे। जैसे-जैसे उनकी बुद्धि विकसित होती गई, वैसे अंग्रेज़ों के प्रति इनका विरोध भी मन ही मन तीव्र होता चला गया।

14 वर्ष की आयु में जींद रियासत में शादी

इतिहासकारों के अनुसार राजा साहब के बड़े भाई कुँवर बल्देव सिंह जी की शादी फरीदकोट में बड़ी शान से हुई थी और उसे देखकर उनके मन में भी यह गुप्त लालसा जाग उठी थी कि मेरा विवाह भी ऐसी ही शान और तड़क-भड़क सेइहो। राजा साहब के विद्यार्थी जीवन में ही सन 1901 में जब वह केवल 14 वर्ष के थे, यह अवसर भी आ गया। जींद नरेश महाराज रणवीरसिंह जी की छोटी बहिन बलवीर कौर से उनकी सगाई बड़े समारोह से वृन्दावन में पक्की हो गई और विवाह की तैयारी होने लगी। परन्तु इसी बीच एक महान् दुर्घटना घट गई। जिस दिन राजा साहब का तेल चढ़ा था, उसी दिन दुर्भाग्य से मथुरा वृन्दावन मार्ग पर स्थित जयसिंहपुरा वाली कोठी में उनके पूज्य पिता राजा बहादुर घनश्यामसिंह जी का स्वर्गवास हो गया। इस दुर्घटना के कारण विवाह को भी स्थगित करने का भी विचार होने लगा, किन्तु अन्त में यही तय हुआ कि क्योंकि राजा महेन्द्र प्रताप गोद आ गये हैं, अत: देहरी बदल जाने के कारण अब विवाह नहीं रोका जा सकता।



रेल गाड़ियों में जींद गई बारात

राजा महेन्द्र प्रताप जी का विवाह जींद में बड़ी शान से हुआ। दो स्पेशल रेल गाड़ियों में बारात मथुरा स्टेशन से जींद गई। इस विवाह पर जींद नरेश ने तीन लाख पिचहत्तर हज़ार (3,75,000) रुपये व्यय किए थे। यह उस सस्ते युग का व्यय है, जब 1 रुपये का 1 मन गेहूँ आता था। राजकुमारी को विवाह में इतनी भेंट दान स्वरूप सामान दिया गया कि वृन्दावन के महल का विशाल आँगन उससे खचाखच भर गया। इसमें बहुत सा सामान महाराज ने इष्ट मित्रों और जनता को बांट दिया। विवाह के समय राजा साहब की आयु केवल 14 वर्ष की थी और उनकी महारानी उनसे तीन वर्ष बड़ी थीं।



आमतौर पर हाथरस जिले का भारत के नक्शे पर कोई बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं बन पाया, आम आदमी उसे काका हाथरसी की नगरी के तौर पर जानता है, या हींग, घी, रंग, रबड़ी जैसे कुछ उम्दा प्रोडक्ट्स केंद्र के तौर पर । उसकी वजह भी है कि सरदार पटेल की तरह राजा महेंद्र प्रताप के साथ भी कांग्रेस सरकार के इतिहासकारों ने नाइंसाफी की, इस इंटरनेशनल क्रांतिकारी का कद कई मायनों में गांधी और बोस के करीब है, ये वो व्यक्ति है जिसने देश के भावी पीएम को चुनावों में धूल चटा दी, ये वो क्रांतिकारी है जिसने 28 साल पहले वो काम कर दिया, जो नेताजी बोस ने 1943 में आकर किया। ये वो व्यक्ति है, जिसे गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया और उन दोनों ही साल नोबेल पुरस्कार का ऐलान नहीं हुआ और पुरस्कार राशि स्पेशल फंड में बांट दी गई।

ससुर के न चाहते हुए भी गए अधिवेशन में

राजा महेंद्र प्रताप का सही से आकलन इतिहासकारों ने किया होता तो आज राजा को ही नहीं दुनिया हाथरस जिले को और उनकी रियासत मुरसान को भी उसी तरह से जानती, जैसे बाकी महापुरुषों के शहरों को जाना जाता है। 1905 के स्वदेशी आंदोलन से वो इतना प्रभावित हुए कि अपने ससुर के मना करने के बावजूद वो 1906 के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में हिस्सा लेने चले गए। मार्क्सवादी होने के बावजूद उन्‍हें कांग्रेस के हिंदूवादी नेता बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल पसंद आते थे। 19वीं सदी के पहले दशक में एक जाट और राजा के परिवार में कोई ऐसा सोचने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। फिर विदेशी वस्त्रों के खिलाफ अपनी रियासत में उन्होंने जबरदस्त अभियान चलाया। बाद में उनको लगा कि देश में रहकर कुछ नहीं हो सकता। लाला हरदयाल, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, रास बिहारी बोस, श्याम जी कृष्ण वर्मा, अलग- अलग देशों से ब्रिटिश सरकार की गुलामी के खिलाफ उस वक्त भारत के लिए अभियान चला रहे थे। उस वक्त तक जर्मनी में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी बर्लिन कमेटी बना चुके थे, प्रथम विश्वयुद्ध को वो एक मौका मान रहे थे, जब इंग्लैंड की विरोधी शक्तियों से हाथ मिलाकर भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाई जा सके।

जर्मनी किंग ने दी ऑर्डर दी रैड ईगल उपाधि

राजा महेंद्र का नाम तब तक इतना हो चुका था कि स्विट्जरलैंड में उनकी मौजूदगी की भनक लगते ही चट्टोपाध्याय ने लाला हरदयाल और श्याम जी कृष्ण वर्मा को उन्हें बर्लिन बुलाने को कहा। बाकायदा जर्मनी के विदेश मंत्रालय से कहा गया उन्हें बुलाने को। लेकिन राजा ने खुद जर्मनी के किंग से व्यक्तिगत तौर पर मिलने की इच्छा जताई, इधर जर्मनी के राजा भी उनसे मिलना चाहते थे, जर्मनी के राजा ने उन्हें ऑर्डर ऑफ दी रैड ईगल की उपाधि से सम्मानित किया। राजा जींद के दामाद थे और उन्होंने अफगानिस्तान की सीमा से भारत में घुसने के लिए पंजाब की फुलकियां स्टेट्स जींद, नाभा और पटियाला की रणनीतिक पोजीशन की उनसे चर्चा की। जर्मन राजा से काफी भरोसा पाकर वो बर्लिन से चले आए। बर्लिन छोड़ने से पहले उन्होंने पोलैंड बॉर्डर पर सेना के कैंप में रहकर युद्ध की ट्रेनिंग भी ली। उसके बाद वो स्विट्जरलैंड, तुर्की, इजिप्ट में वहां के शासकों से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सपोर्ट मांगने गए, उसके बाद अफगानिस्तान पहुंचे। उन्हें लगा कि यहां रहकर वो भारत के सबसे करीब होंगे और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग यहां रहकर लड़ी जा सकती है।

आजादी के लिए 32 साल देश से बाहर प्रयास

 उस वक्त जब राजा महेंद्र प्रताप कई देश के राजाओं से अपने देश की आजादी के लिए मिल रहे थे, उनकी उम्र महज 28 साल थी और देश की आजादी के लिए 32 साल वो दुनिया भर की खाक ही छानते रहे..... दरबदर।
एक दिसंबर 1915 का दिन था, राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन, उस दिन वो 28 साल के हुए थे। उन्होंने भारत से बाहर देश की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया, बाद में सुभाष चंद्र बोस ने 28 साल बाद उन्हीं की तरह आजाद हिंद फौज का गठन सिंगापुर में किया था। राजा महेंद्र प्रताप को उस सरकार का राष्ट्रपति बनाया गया यानी राज्य प्रमुख। मौलवी बरकतुल्लाह को राजा का प्रधानमंत्री घोषित किया गया और अबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री। भोपाल के रहने वाले बरकतुल्लाह के नाम पर बाद में भोपाल में बरकतुल्लाह यूनीवर्सिटी खोली गई। राजा की इस काबुल सरकार ने बाकायदा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जेहाद का नारा दिया। लगभग हर देश में राजा की सरकार ने अपने राजदूत नियुक्त कर दिए, बाकायदा वो उन सरकारों से बतौर भारत के राजदूत मान्यता देने की बातचीत में जुट गए। लेकिन उस वक्त ना कोई बेहतर सैन्य रणनीति थी और ना ही उन्हें इस रिवोल्यूशरी आइडिया के लिए बोस जैसा समर्थन मिला और सरकार प्रतीकात्मक रह गई। लेकिन राजा की लड़ाई थमी नहीं उनकी जिंदगी तो हंगामाखेज थी।



जापान में चलाई मैगजीन

जिस साल में राजा ने भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाई, उसी साल राजा के सिर पर ब्रिटिश सरकार ने इनाम रख दिया, रियासत अपने कब्जे में ले ली, और राजा को भगोड़ा घोषित कर दिया। राजा ने काफी परेशानी के दिन झेले। फिर उन्होंने जापान में जाकर एक मैगजीन शुरू की, जिसका नाम था वर्ल्ड फेडरेशन। लंबे समय तक इस मैगजीन के जरिए ब्रिटिश सरकार की क्रूरता को वो दुनिया भर के सामने लाते रहे। फिर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान राजा ने फिर एक एक्जीक्यूटिव बोर्ड बनाया, ताकि ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने के लिए मजूबर किया जा सके। लेकिन युद्ध खत्म होते-होते सरकार राजा की तरफ नरम हो गई थी, फिर आजादी होना भी तय मानी जाने लगी। राजा को भारत आने की इजाजत मिली। ठीक 32 साल बाद राजा भारत आए, 1946 में राजा मद्रास के समुद्र तट पर उतरे। वहां से वो घर नहीं गए, सीधे वर्धा पहुंचे गांधीजी से मिलने। गांधीजी और राजा में अजीबो-गरीब रिश्ता था, बहुत कम लोगों को पता होगा कि हाथरस के इस राजा को नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था। उस साल किसी को भी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया, सारी पुरस्कार राशि किसी स्पेशल फंड में दे दी गई। इसका गांधी कनेक्शन ये है कि बिलकुल ऐसा ही तब हुआ था, जब गांधीजी को 1948 में नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था, गांधीजी की हत्या होने के चलते बात आगे नहीं बढ़ी और उस साल भी नोबेल पुरस्कार के लिए किसी के नाम का ऐलान नहीं हुआ। सारा पैसा स्पेशल फंड में दे दिया गया।

लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी जी को दी थी शिकस्त

आजादी के बाद गांधी जी से अच्छे संबंध के बावजूद वे कांग्रेस में शामिल नहीं हुए। लेकिन उनकी हस्ती इस कदर बड़ी थी कि कांग्रेस तो कांग्रेस उस वक्त के जनसंघ के बड़े नेता और भावी पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को भी लोकसभा के चुनावों में उन्होंने शिकस्त दी।  1952 में मथुरा से निर्दलीय सांसद बने और 1957 में फिर से अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर निर्दलीय ही सांसद चुने गए। बिना किसी का अहसान लिए शान से राजा की तरह जीते रहे। राजा महेंद्र प्रताप की उपलब्धियां यहीं कम नहीं होतीं, उनके खाते में भारत का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज भी है। अपने बेटे का नाम रखा उन्होंने प्रेम और वृंदावन में एक पॉलिटेक्निक कॉलेज खोला, जिसका नाम रखा प्रेम महाविद्यालय। राजा मॉर्डन एजुकेशन के हिमायती थे, तभी एएमयू के लिए भी जमीन दान कर दी। देश  की आजादी के बाद लोग मानते थे कि उनसे बेहतर कोई विदेश मंत्री नहीं हो सकता था, लेकिन उन्होंने किसी से कुछ मांगा नहीं और आमजन के लिए काम करते रहे। पंचायत राज कानूनों, किसानों और फ्रीडम फाइटर्स के लिए लड़ते रहे।राजा जो भी काम करते थे, वो क्रांति के स्तर पर जाकर करते थे। हिंदू घराने में वो पैदा हुए थे, मुस्लिम संस्था में वो पढ़े थे, यूरोप में तमाम ईसाइयों से उनके गहरे रिश्ते थे, सिख धर्म मानने वाले परिवार से उनकी शादी हुई थी। लेकिन उनको लगता था मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है।
  29 अप्रैल 1979 में देश का यह महानायक इस दुनिया को अलविदा कह गया...।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत बढ़िया! उत्तम दुर्लभ जानकारी के लिये धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं

  2. 4 ਅਪ੍ਰੈਲ, 2019 - ਸੰਗਰੂਰ ਸ਼ਹਿਰ ਜੋ ਕਦੀ ਰਿਆਸਤ ਜੀਂਦ ਦੀ ਰਾਜਧਾਨੀ ਹੋਇਆ ਕਰਦਾ ਸੀ, ਜੀਂਦ ਫੁੱਲਕੀਆਂ ਰਿਆਸਤ ਦਾ ਹਿੱਸਾ ਸੀ | ਸੰਗਰੂਰ ਸ਼ਹਿਰ ਨੂੰ ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਘਵੀਰ ਸਿੰਘ ਨੇ 1870 'ਚ ਜੈਪੁਰ ਦੀ ਤਰਜ਼ 'ਤੇ ਮੁੜ ਉਸਾਰੀ ਕਰ ਕੇ ਇਕ ਖ਼ੂਬਸੂਰਤ ਸ਼ਹਿਰ ਬਣਾਇਆ ਸੀ | ਇਸ ਸ਼ਹਿਰ ਨੂੰ 1522 ਦੇ ਵਿਚ ਆਬਾਦ ਕੀਤਾ ਸੀ ਪਰ ਉਸ ਸਮੇਂ ਇਹ ਕੱਚੇ ਘਰਾਂ ਦਾ ਸ਼ਹਿਰ ਸੀ | 1827 ਵਿਚ ਜੀਂਦ ਦੇ ਰਾਜਾ ਸੰਗਤ ਸਿੰਘ ਨੇ ਇਸ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਰਾਜਧਾਨੀ ਬਣਾਇਆ | ਰਘਵੀਰ ਸਿੰਘ ਨੇ ਇਸ ਨੂੰ ਨਵਾਂ ਰੂਪ ਦਿੰਦੇ ਹੋਏ ਸ਼ਹਿਰ ਦੇ ਤਲਾਬਾਂ ਦੇ ਉੱਪਰ ਮੰਦਰਾਂ ਦਾ ਨਿਰਮਾਣ ਵੀ ਕਰਵਾਇਆ ਸੀ | ਸੰਗਰੂਰ ਦੇ ਪਟਿਆਲਾ ਦਰਵਾਜ਼ੇ ਦੇ ਬਾਹਰ ਮਾਤਾ ਕਾਲੀ ਦਾ ਮੰਦਰ 1883 'ਚ ਬਣਵਾਇਆ ਗਿਆ ਸੀ | ਮਾਤਾ ਦੀ ਮੂਰਤੀ ਨੂੰ ਮਹਾਰਾਜਾ ਰਘਵੀਰ ਸਿੰਘ ਆਪ ਕਲਕੱਤੇ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਆਏ ਸਨ | ਇਹ ਮੂਰਤੀ ਕਾਲੀ ਕਸੌਟੀ ਮਾਰਬਲ ਦੀ ਬਣੀ ਹੋਈ ਹੈ |

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हरियाणा में गाए गए 24 प्रसिद्ध सांग, हर रागणी में मिलता है जीवन का मर्म

यहां स्नान करने से मिलता है 68 तीर्थों में स्नान जैसा पुण्य