गांव-घर सब बाजारू हो रहे... शहरीकरण की ये लाचारी क्यों है...

- बढ़ रहे बाजारीकरण और आसानी से उपलब्धता की होड़ में बदलते हालात - घर और गांवों के बदलते स्वरूप पर एक दृष्टिकोण जितेंद्र बूरा. दादा जी की दरवाजे में बनी वो बैठक भी उनके जाने के साथ ही सूनी हो गई। उसके अंदर खामोशी में कुछ देर बैठा तो वो बातें वो किस्से, वो सीख की दास्तां जैसे दीवारों से गूंजते हुए कानों में घुस रही है। इंसान रहे ना रहे, यादें और सीख तब तक बरकरार रहती हैं जब तक उन्हें आने वाली पीढ़ी तक पहुंचा दिया जाता है। बुजुर्गों के साथ बैठने से जीवन के अनुभव मिलते हैं। दादा की बैठक में बैठकर अचानक से किस्सा याद आ गया। सामने बैठे दादा ने जब कहा था...सब बाजारू हो रहा है...धरोहरों को देखने के भी दाम लगेंगे। चूल्हे से लेकर चौखट तक, जूती से लेकर पगड़ी तक सब बाजारू हो गया है। बीमारी तो सीजन की आती रही सदियों से, लेकिन अब तो इलाज की कमाई के लिए बीमारियां पैदा होने लगी हैं। दादा की ये बात दिलचस्पी पैदा करने वाली थी। उत्सुकता बढ़ती गई और पूछना शुरू कर दिया क्या बदल गया। कैसे बदल गया। मैने भी कहा कि ये नए दौर का बदलाव है। पीढ़ी कोई हो बुजुर्गों को नया दौर पसंद कहां आया है, वो तो कोसते ही...